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Saturday, September 15, 2018

Mutual Divorce vs Contested Divorce-हिन्दू विवाह अधिनियम- HINDU MARRIAGE ACT, 1955


हिन्दू विवाह अधिनियम- HINDU MARRIAGE ACT, 1955

Mutual Consent Divorce vs Contested Divorce

Mutual Divorce-Contested Divorce-hindu-marriage-act
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शादी दो लोगो का एक सामाजिक मिलन है जिसको सामाजिक, कानूनी और धार्मिक तौर पर मान्यता प्राप्त होती है, शादी एक ऐसा संस्थान है जिसमे दोनो पति पत्नी एक शादी को सफल बनाने के लिए बहुत मेहनत करते है
लेकिन विवाह विच्छेद या तलाक एक ऐसा कानूनी रास्ता है जिसके द्वारा पति पत्नी में से कोई भी एक दुसरे से कानूनी रूप से अलग होता है Hindu Marriage Act, 1955, की धारा 13 के अनुसार, कोई भी एक पक्ष spouse धारा 13 में बताये गए आधार पर अपने spouse से contested Divorce या Mutual Divorce विधि के जरिये कानूनी रूप से अपने विवाह का विघटन (विच्छेद) कर सकते है
Mutual Divorce-Contested Divorce-hindu-marriage-act
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हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार पति पत्नी धारा 13 के अनुसार अपना विवाह विच्छेद कर सकते है हिन्दू विवाह विच्छेद अधिनियम, विवाह विच्छेद करने के दो तरीके बताता है   
1.     आपसी सहमती से विवाह विच्छेद (Mutual Consent Divorce)   

2.     केस लड़कर या संघर्ष कर कर विवाह विच्छेद (Contested Divorce) 


Mutual Consent Divorce या आपसी सहमती से तलाक क्या होता है

Hindu Marriage Act, 1955 की धारा 13–B के अनुसार पति पत्नी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में Joint Mutual Divorce Petition filed करके एक दुसरे से आपसी रजामंदी से भी तलाक ले सकते है लेकिन इसके लिए उन्हें शपथ पत्र (affidavit) पर अपनी सहमती लिख कर देनी होती है की वे एक दुसरे से शांति पूर्वक तलाक लेकर अलग अलग होना चाहते है
सरल शब्दों में कहे तो Mutual Divorce एक ऐसा कानूनी रास्ता है जिसके द्वारा पति पत्नी एक दुसरे से तलाक ले सकते है इसके लिए सबसे जरुरी जो चीज है वो है आपसी सहमती जो बिना किसी दबाव और धमकी या किसी बात से प्रभावित होकर न दी गयी हो और पति पत्नी एक दुसरे से कम से कम एक वर्ष से अलग अलग रह रहे हो ये दोनों ही बातें होना अनिवार्य है इन शर्तो में से कोई भी शर्त पुरी नहीं हो सकती तो सग्मती या रजामंदी से तलाक नहीं हो सकता
रजामंदी या सहमति से तलाक लेने से पहले या ये कहे की कोर्ट जाने से पहले ज्यादातर पति पत्नी एक दुसरे से जो भी लेना या देना (Alimony) है या उनके बच्चे है तो बच्चो  की Custody किस spouse के पास होगी पहले से ही निश्चित कर लिया जाता है कई बार ऐसा देखा गया है की ज्यादातर मामलो में Alimony और दहेज़ का समान जिसमे सबसे मुख्य Gold ज्वेलरी होती है और इस Issue के decide न होने के कारण दोनों पक्ष एक दुसरे से कोर्ट में कई वर्षो तक कोर्ट में लड़ाई करती है जब ये Issue एक बार decide हो जाता है तब भी वे एक दुसरे से आपसी सहमती से तलाक ले लेते है

Mutual Divorce-Contested Divorce-hindu-marriage-act
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Procedure for Joint Mutual Divorce Petition 

रजामंदी से तलाक लेने के लिए दोनों पक्षो यानि पति – पत्नी को दो चरणों से गुजरना होता है जिसे First Motion of Mutual Divorce u/s 13B(1) Hindu Marriage Act, 1955 और Second Motion of Mutual Divorce u/s 13B(2) Hindu Marriage Act, 1955 कहा जाता है इसके लिए दोनों पक्षो को एक साथ मिलकर एक Joint Mutual Divorce Petition, अपने, अपने affidavits व् original Marriage Proof व् उनके पहचान पत्रों आदि के साथ अपने डिस्ट्रिक्ट की family कोर्ट में सबमिट करनी होती है इसके बाद family कोर्ट दोनों पार्टीज के original documents और Petition को अच्छी तरह से scuritinize करके दोनों के statement record करती है इसके बाद कोर्ट को लगता है के Mutual Divorce मना करने के लिए कोई कारण नहीं है ये Mutual Divorce की petition allow कर दी यानि विवाह विच्छेद या तलाक हो जाता है 
हिन्दू मैरिज एक्ट की धारा 13-B(1) के अनुसार जा एक बार first motion पास हो जाता है तो दोनों पक्षो को Second Motion of Mutual Divorce u/s 13B(2) Hindu Marriage Act, 1955 file करने के लिए कम से कम 6 महीने, और अधिक से अधिक 18 महीने का समय दिया जाता है जिसको फॉलो करना अनिवार्य होता है इसका मतलब है की दोनों पति पत्नी को कम से कम 6 महीनो इन्तजार करना होता है इस बीच इस ये माना जाता है की यदि दोनों पक्षो का मन बदल जाता है और अब दोनों पक्ष एक साथ रहने के लिए राज़ी है तो उन्हें second motion की Petition फाइल करने की जरुरत नहीं है और 6 महीने गुजरने के बाद भी यदि दोनों पक्ष यानि पति-पत्नी दोनों एक साथ नहीं रहना चाहते तो दोनों पक्ष एक बार फिर से Second Motion of Mutual Divorce u/s 13B(2) Hindu Marriage Act, 1955 की petition file करके तलाक ले कर पूर्ण रूप से हमेशा के लिए अलग अलग हो सकते है Second Motion of Mutual Divorce के दौरान भी दोनों पक्षो को First Motion के प्रक्रिया की तरह ही कार्यवाही से गुजरना होता है
लेकिन हाल ही में Hon’ble Supereme Court of India ने अपने कई judgments में 6 माह के इन्तजार को ख़तम कर दिया है की यदि कोर्ट को लगता है की दोनों पक्षो में साथ साथ रहने की बिलकुल भी गुन्जायिश नहीं है तो कोर्ट ये 6 महीने का लम्बा इन्तजार ख़तम कर सकती है और First Motion of Mutual Divorce के एक सप्ताह के बाद  Second Motion of Mutual Divorce की Petition स्वीकार करके तलाक दे सकती है
    
Contested Divorce (केस लड़कर या संघर्ष करके विवाह विच्छेद या तलाक)

तलाक या विवाह विच्छेद की बात जब उठती, जब पति पत्नी में से कोई एक अपनी शादी तोड़ने का निश्चय कर लेता है और आगे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता, Hindu Marriage Act, 1955 में तलाक लेने का कानून काफी जटिल है और तलाक लेने वालो के लिए तलाक लेने का फैसला बड़ा की दुखदायी होता है

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केस लड़कर या संघर्ष करके विवाह विच्छेद या तलाक लेना
Contested Divorce


हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार केस लड़कर या संघर्ष करके विवाह विच्छेद करना भी एक प्रावधान है जिसके अनुसार पति या पत्नी कोई एक भी पक्ष इस अधिनियम की धारा 13 में बताये गए विवाह विच्छेद के आधार पर विवाह विच्छेद हो सकता है    
विवाह विच्छेद के आधार

Ground of Divorce under section 13 of Hindu Marriage Act, 1955
धारा 13 विवाह विच्छेद के आधार:-
 (1) कोई विवाह, भले वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अनुष्ठित हुआ हो, या तो पति या पत्नी पेश की गयी याचिका पर तलाक की आज्ञप्ति द्वारा एक आधार पर भंग किया जा सकता है कि -

(i) दूसरे पक्षकार ने विवाह के पश्चात् अपनी पत्नी या अपने पति के आलावा किसी व्यक्ति , के साथ स्वेच्छया मैथुन (sex) किया है; या
(i-क) विवाह के पश्चात् जीवन साथ के साथ क्रूरता का बर्ताव किया है; या
(i-ख) कोर्ट में विवाह विच्छेद मुकदमा होने के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष की कालावधि तक जीवन साथी को (अर्जीदार) अभित्यक्त (परित्याग) कर रखा है; या
(ii) दूसरा पक्षकार दूसरे धर्म को ग्रहण करने से हिन्दू होने से परिविरत हो गया है, या
(iii) दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृत-चित रहा है लगातार या आन्तरायिक रूप से इस किस्म के और इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित रहा है कि अर्जीदार से युक्ति-युक्त रूप से आशा नहीं की जा सकती है कि वह प्रत्यर्थी के साथ रहे।

स्पष्टीकरण -
(क) इस खण्ड में 'मानसिक विकार' अभिव्यक्ति से मानसिक बीमारी, मस्तिष्क का संरोध या अपूर्ण विकास, मनोविक्षेप विकार या मस्तिष्क का कोई अन्य विकार या अशक्तता अभिप्रेत है और इनके अन्तर्गत विखंडित मनस्कता भी है;
(ख) 'मनोविक्षेप विषयक विकार' अभिव्यक्ति से मस्तिष्क का दीर्घ स्थायी विकार या अशक्तता (चाहे इसमें वृद्धि की अवसामान्यता हो या नहीं) अभिप्रेत है जिसके परिणामस्वरूप अन्य पक्षकार का आचरण असामान्य रूप से आक्रामक या गम्भीर रूप से अनुत्तरदायी हो जाता है और उसके लिये चिकित्सा उपचार अपेक्षित हो या नहीं, या किया जा सकता हो या नहीं, या
(iv) दूसरा पक्षकार याचिका पेश किये जाने से अव्यवहित उग्र और असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित रहा है; या
(v) दूसरा पक्षकार याचिका पेश किये जाने से अव्यवहित यौन-रोग से पीड़ित रहा है; या
 (vi) दूसरा पक्षकार किसी धार्मिक आश्रम में प्रवेश करके संसार का परित्याग कर चुका है; या
(vii) दूसरे पक्षकार के बारे में सात वर्ष या अधिक कालावधि में उन लोगों के द्वारा जिन्होंने दूसरे पक्षकार के बारे में, यदि वह जीवित होता तो स्वभावत: सुना होता, नहीं सुना गया है कि जीवित है।

स्पष्टीकरण -
इस उपधारा में 'अभित्यजन' पद से विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा अर्जीदार का युक्तियुक्त कारण के बिना और ऐसे पक्षकार की सम्मति के बिना या इच्छा के विरुद्ध अभित्यजन अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा अर्जीदार की जानबूझकर उपेक्षा भी है और इस पद के व्याकरणिक रूपभेद तथा सजातीय पदों के अर्थ तदनुसार किये जायेंगे।
(1-क) विवाह में का कोई भी पक्षकार चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पहले अथवा पश्चात् अनुष्ठित हुआ हो, तलाक की आज्ञप्ति द्वारा विवाह-विच्छेद के लिए इस आधार पर कि
(i) विवाह के पक्षकारों के बीच में, इस कार्यवाही में जिसमें कि वे पक्षकार थे, न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति के पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की कालावधि तक सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ है; अथवा
(ii) विवाह के पक्षकारों के बीच में, उस कार्यवाही में जिसमें कि वे पक्षकार थे, दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की आज्ञप्ति के पारित होने के एक वर्ष पश्चात् एक या उससे अधिक की कालावधि तक, दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन नहीं हुआ है;
याचिका प्रस्तुत कर सकता है।
(2) पत्नी तलाक की आज्ञप्ति द्वारा अपने विवाह-भंग के लिए याचिका :-
(i) इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठित किसी विवाह की अवस्था में इस आधार पर उपस्थित कर सकेगी कि पति ने ऐसे प्रारम्भ के पूर्व फिर विवाह कर लिया है या पति की ऐसे प्रारम्भ से पूर्व विवाहित कोई दूसरी पत्नी याचिकादात्री के विवाह के अनुष्ठान के समय जीवित थी;
परन्तु यह तब जब कि दोनों अवस्थाओं में दूसरी पत्नी याचिका पेश किये जाने के समय जीवित हो; या
(ii) इस आधार पर पेश की जा सकेगी कि पति विवाह के अनुष्ठान के दिन से बलात्कार, गुदामैथुन या पशुगमन का दोषी हुआ है; या
(iii) कि हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के अधीन वाद में या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अधीन (या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 की तत्स्थानी धारा 488 के अधीन) कार्यवाही में यथास्थिति, डिक्री या आदेश, पति के विरुद्ध पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किये जाने के समय से पक्षकारों में एक वर्ष या उससे अधिक के समय तक सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ है; या
(iv) किसी स्त्री ने जिसका विवाह (चाहे विवाहोत्तर सम्भोग हुआ हो या नहीं) उस स्त्री के पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व अनुष्ठापित किया गया था और उसने पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात् किन्तु अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व विवाह का निराकरण कर दिया है।

13-क . विवाह विच्छेद कार्यवाही में प्रत्यार्थी को वैकल्पिक राहत 
विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी पर इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में, उस दशा को छोड़कर जहाँ और जिस हद तक अर्जी धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (ii), (vi) और (vii) में वर्णित आधारों पर है, यदि न्यायालय मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह न्यायोचित समझता है तो विवाह-विच्छेद की डिक्री के बजाय न्यायिक-पृथक्करण (Judicial Seperation) के लिए डिक्री पारित कर सकेगा।

Procedure for contested Divorce 
contested Divorce की प्रक्रिया में एक पक्ष (spouse) को दुसरे पक्ष से केस लड़कर तलाक लेता जिसमे किसी एक आधार पर विवाह विच्छेद की Petition डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में file करता है उसे दुसरे पक्ष पर लगाये गए इल्जाम को कोर्ट में सबूतों के साथ साबित करना होता है

Sunday, September 9, 2018

चेक bounce के मामलो में कानूनी करवाई केसे होती है, cheque bounce ke case kya hota hai


चेक bounce के मामलो में कानूनी करवाई केसे होती है यह जानने के लिए सबसे पहले हमें यह जानना होगा की चेक क्या होता है

cheque bounce kya hai, dishonour of cheque
138 cheque dishonour or bounce

चेक क्या होता (WHAT IS CHEQUE)

चेक एक ऐसा लिखित दस्तावेज है (bills of Exchange यानि Negotiable instrument ) है जो cheque लिखने वाला, बिना किसी शर्त के अपने बैंक को आदेश देता है कि मांग करने पर चेक प्राप्तकर्ता को भुगतान कर दिया जाए यदि सरल शब्दों में समझे तो, चेक एक प्रकार का नोट (रुपया) है जितना रुपये उसपे लिखे होते है- उदाहारण के लिए यदि कोई चेक पर दस हज़ार लिखा है तो वो दस हज़ार रुपये का नोट है जो केवल बैंक में ही चल सकता है और चेक प्राप्तकर्ता (peyee) को बैंक से उतने रुपये प्राप्त हो जाते है   

चेक जारीकर्ता- (drawer of cheque) चेक लिखने वाले को, जो भुगतान का आदेश देता है उसे चेक जारीकर्ता (drawer of Cheque) कहते है

बैंक-  जिसको पक्ष चेक का भुगतान का आदेश दिया जाता है उसे बैंक कहते है

चेक धारक (Drawee और payee)-जो व्यक्ति भुगतान प्राप्त करता है उसे चेक धारक यानि भुगतान प्राप्तकर्ता (Drawee) कहते है

चेक के प्रकार (Types of cheques)

1.      Bearer cheque :- साधारण चेक:- साधारण चेक वे चेक होते है जिनका भुगतान चेक प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को बैंक द्वारा कर दिया जाता है चाहे चेक उस व्यक्ति के नाम हो या ना हो

2.      Crossed cheque : रेखाकिंत चेक वे चेक होते है जब चेक के ऊपर दो समान्तर रेखाए खिंच दी जाती है और चेक लिखने वाला चाहता है की इस चेक का भुगतान नकद ना मिले बल्कि चेक प्राप्तकर्ता के अकाउंट में जमा करके मिले
3.      Order Cheque    : आर्डर चेक वे चेक होते है जब चेक पर bearer के स्थान पर order लिखा होता है ऐसे चेक का भुगतान जिस व्यक्ति को किया जाता है उसे payee कहा जाता है और उसे भुगतान उसकी पहचान होने के बाद की किया जाता है
4.      Posted Dated Cheque:        ये वे चेक होते है जिनका भुगतान Future की किसी date पर होता है, जो चेक पर पहले से ही लिखी होती है और ऐसे चेक भुगतान उस date से पहले honoured  नहीं हो सकता यानि उसका भुगतान उस date से पहले नहीं हो सकता
5.      Stale Cheque:        स्टेल चेक वे चेक होते है जिनको बैंक में भुगतान के लिए validity  date निकल जाने के बाद यानी तीन महीने के बाद जमा किया जाता है ऐसे चेक को बैंक हमेशा dishonoured करता है

चेक बाउंस या Dishonoured केसे होता है

जब चेक प्राप्तकर्ता (payee) द्वारा बैंक में भुगतान प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो या तो बैंक उस चेक को honoured कर देता है मतलब उसने अमाउंट प्राप्तकर्ता के अकाउंट में जमा हो जाते है उसे चेक का honoured कहा जाता है या उस चेक को बिना पेमेंट के return कर देता जिसे चेक का bounce या dishonoured या चेक का अस्वीकृत होना कहा जाता है
चेक bounce होने के कई कारण हो सकते है जिसमे चेक लिखने वाले के बैंक अकाउंट के पर्याप्त बैलेंस न होना या चेक पर लिखी राशि से कम बैलेंस होना, मुख्य कारण होता है
signature न मैच होना, गलत कंटेंट फिल होना या overwriting होना भी कारण है जो धारा 138 के तहत अपराध की श्रेणी में आता ही जो दंडनीय है, अगर अकाउंट किसी कारणवश फ्रीज़ हो चुका है तो भले ही अकाउंट में कितना ही पैसा क्यों न हो, चेक स्वीकार नहीं किया जायेगा।
अगर आपने 3 महीने पुराना चेक लगा दिया है या फिर ऐसी चेक जिस पर आगे की दिनांक लिखी है, तो बैंक चेक को रिजेक्ट कर देगा।

आप यह बात जानते ही होंगे की चेक की मान्यता सिर्फ 3 महीने के लिए ही होती है, अगर 3 महीने बाद जब उसी चेक को बैंक में लेकर जाते है तो वह अमान्य हो जाता है और बैंक उसे वापस कर देती है। इसके बाद में उस चेक की कोई वेल्यू नहीं रह जाती है।

अगर चेक काटने वाले व्यक्त‍ि ने उल्टे-सीधे हस्ताक्षर कर दिये हैं और बैंक में specimen सिग्नेचर से मैच नहीं हो रहे हैं, तो चेक बाउंस हो जाता है।
अगर आपने किसी का नाम लिखा और उसे काट कर दूसरे का नाम लिख दिया। या फिर दिनांक में ऐसे ही परिवर्तन किये तो बैंक चेक को रिजेक्ट कर देगा।

SECTION 138 OF NEGOTIABLE INSTRUMENT ACT, 1881 (CHEQUE BOUNCE होने के बाद कानूनी करवाई)

इस अधिनियम की धारा 138 के अनुसार चेक का अस्वीकृत होना एक दंडनीय अपराध है और इसके लिए दो साल का कारावास या जुर्माना या दोनों हो सकते हैंl

यदि चेक bounce हो जाता है और प्राप्तकर्ता को भुगतान नहीं मिलता तो वह चेक जारीकर्ता के ऊपर कानूनी करवाई कर सकता है

1.      Legal notice :- चेक bounce होने के बाद चेक प्राप्तकर्ता (Drawee) चेक bounce होने की तिथि के 30 दिन के अन्दर चेक जारीकर्ता को चेक राशि का भुगतान करने का Legal Notice के द्वारा मांग करता है की चेक लिखने वाला Legal Notice मिलने की तिथि से 15 दिन में चेक अमाउंट का भुगतान करे
     चेक प्राप्तकर्ता को चेक bounce होने के बाद अपने बैंक से एक return memo मिलती है जिस दिन उसे ये return memo मिलती है उस दिन से शिकायतकर्ता के पास लीगल नोटिस भेजने के 30 दिन होते है

2.  आपराधिक शिकायत:- यदि 15 दिन का mandatory समय ख़त्म होने के बाद, जब चेक जारीकर्ता भुगतान नहीं करता है तो चेक प्राप्तकर्ता (payee) Negotiable instrument Act की धारा 138 के तहत चेक जारीकर्ता के खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज करा सकता है
        लेकिन अगर चेक जारीकर्ता नोटिस प्राप्त होने की तारीख से 15 दिनों के भीतर चेक राशि का भुगतान करता हैतो वह किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। अन्यथा, शिकायतकर्ता नोटिस में निर्धारित 15 दिनों की समाप्ति की तारीख से एक महीने के भीतर उस क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के कोर्ट में शिकायत दर्ज कर सकता है
शिकायतकर्ता को शिकायत के साथ सभी original documents    शिकायत के साथ जमा कराने जरुरी है जैसे चेक, return memo, legal notice, legal notice प्राप्त होने का सबूत आदि
आपराधिक शिकायत मजिस्ट्रेट की कोर्ट में दर्ज होने के बाद कोर्ट की करवाई
1.     शिकायत मिलने के बाद कोर्ट शिकायत और इसके साथ filed सभी documents को अच्छी तरह से consider एवं scrutinize करता है और कोर्ट को लगता है की section 138 के तहत अपराध हुआ है तो, संज्ञान (cognizance) लेके accused को कोर्ट में हाज़िर होने के लिए summon जारी करता है

2.      summon मिलने के बाद Accused कोर्ट में appear होता है तो सबसे पहले वह अपनी bail कराता है इसके बाद कोर्ट accused को section 251 of Crpc के अनुसार notice फ्रेम (case बना देता है), इसके बाद accused शिकायतकर्ता को दुबारा witness box में बुलाने की दरखास्त देता है ताकि accused उसका cross examination कर सके और अपने पक्ष के Witness और evidence कोर्ट के समक्ष लाने की request करता है कोर्ट ऐसी request मान लेता है ताकि accused को अपनी बात साबित करने का पूरा मौका मिले

3.      Evidence पूरा होने के बाद कोर्ट दोनों पक्षो की arguments सुनता है और जजमेंट देता है यदि accused को सजा होती है तो जेल भेज दिया जाता है और यदि accused बरी होता है तो उससे section 437-A का bail बांड लेके बरी कर देते है   

नोट- section 138 यानि चेक bounce के मामलो में शिकायतकर्ता को अपनी हर बात beyond reasonable doubt साबित करनी होती है केवल चेक अपने पास होने पर और शिकायत करने से ही case नहीं जीता जा सकता 


संज्ञेय अपराध क्या होता what is Cognizable Offence


संज्ञेय अपराध क्या होता what is Cognizable Offence

Cognizable Offence


Cognizable Offence, Criminal Procedure Code, 1973 की धारा 2 (c) ये बताती है की ऐसे अपराध है या मामले है जिनमे पुलिस अधिकारी, अपराध करने वाले को बिना वारंट के अरेस्ट कर सकता है और first Information report दर्ज करने के बाद जांच शुरू कर सकता है इसके लिए उसे कोर्ट की पहले से परमिशन लेने की आवश्यकता नहीं होती

Cognizable Offence मुख्य रूप से गंभीर होते है जैसे

MURDER
RAPE
KIDNAPPING
THEFT
DOWRY DEATH आदि कोग्निज़ब्ले ओफ्फेंस के कुछ उदाहरण है


Cognizable Offence

Cognizable Offence होने पर पुलिस बिना वारंट के अरेस्ट करती है और अरेस्ट करने के बाद पुलिस मुजरिम को एरिया मजिस्ट्रेट के सामने मुजरिम को पेश करती है और इन्वेस्टीगेशन शुरू करती है इन्वेस्टीगेशन होने के बाद पुलिस अपने तह समय में charge sheet file करती है और इसके बाद मजिस्ट्रेट charge frame करने के बाद trial शुरू करता है और यदि magistrate को यह पता चलता है की इस case का मुकदमा Session Court में ही चलेगा तो मजिस्ट्रेट उस case को Session Court में Commit (Transfer) कर देता है इसके बाद गवाहों के बयान लेने के बाद (गवाई होने के बाद) कोर्ट अपना फाइनल आर्डर देती है

Cognizable Offence, bailable or non bailable दोनों हो सकते है
Cognizable Offence ही ऐसे अपराध है जिनमे पुलिस को F I R दर्ज कने के लिए मजिस्ट्रेट के आर्डर की जरुरत नहीं होती ही यदि अपराध होने की सुचना (Complaint) मिलती है और ये Complaint को देखते ही यह पता चलता है या ये दर्शाती है की एक Cognizable Offence हुआ है तो पुलिस Criminal procedure Code की धारा 154 के तहत F I R दर्ज करना अनिवार्य है और इसके लिए पुलिस को प्रारभिक जांच करने की आवश्यकता नहीं है

IN LALITA KUMAR VS STATE OF UP, THE SUPREME COURT OF INDIA HELD THAT

i) Registration of FIR is mandatory under Section 154 of the Code, if the information discloses commission of a cognizable offence and no preliminary inquiry is permissible in such a situation.
ii) If the information received does not disclose a cognizable offence but indicates the necessity for an inquiry, a preliminary inquiry may be conducted only to ascertain whether cognizable offence is disclosed or not.
iii) If the inquiry discloses the commission of a cognizable offence, the FIR must be registered. In cases where preliminary inquiry ends in closing the complaint, a copy of the entry of such closure must be supplied to the first informant forthwith and not later than one week. It must disclose reasons in brief for closing the complaint and not proceeding further.
iv)The police officer cannot avoid his duty of registering offence if cognizable offence is disclosed. Action must be taken against erring officers who do not register the FIR if information received by him discloses a cognizable offence.
v) The scope of preliminary inquiry is not to verify the veracity or otherwise of the information received but only to ascertain whether the information reveals any cognizable offence.

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